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''मन मानस'' की अधिकांश कविताएँ कवयित्री का भोगा हुआ यथार्थ अथवा अत्यन्त निकटतम साक्षी-भाव से गहरे अनुभव की देन हैं। कवि पर काया प्रवेश से भी 'यथार्थ-सा अनुभव' करता है। कवि एवं समालोचक डॉ. रविनन्दन सिंह के अनुसार "दरअसल काव्य विशिष्ट कोण से देखा हुआ जीवन है। रचनाकार के कोण बदलने से जीवन की व्याख्या अलग-अलग हो जाती है। वह आईना जिसमें कलाकार या रचनाकार दुनिया को देखता है, वह उसकी निजी भंगिमा का आईना है। यह निजता रचनाकार के मन और मस्तिष्क में जन्म लेती है। वैयक्तिक अनुभवों से गुजरना ही काव्य-संस्कृति है। अनुभवों की ईमानदारी ही काव्य को कालजयी बनाती है।" कालजयी कृति होने के बहुत कुछ अन्य कारक भी हैं। यह संग्रह इस दृष्टि से भले ही छूट जाय लेकिन अनुभव की ईमानदारी के रूप में कत्तई पीछे नहीं रहेगी। जाहिर है. शिल्प-कला की यत्किचित त्रुटि भी रहे तो भी अनुभूति की प्रामाणिकता में वह शत-प्रतिशत खरी उतरती है। 'भटकता मानव' नामक कविता के एक-दो काव्यांश का उदाहरण देना ही काफी होगा 'आज नहीं है नर के मन में किसी अन्य नर का स्थान / स्वार्थ, काम, क्रोध व पीड़ा का ही है सर्वत्र स्थान आज नहीं कोई है गाता / कभी किसी के यश का गीत आज सदा वो भय खाता है। सुन पर-प्रभुसत्ता के गीत' कवयित्री लोक मुहावरे के रूप में प्रचलित इस चौपाई के कितना नजदीक है-देखि न जाय पराय विभूती।

मन-मानस

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  • डॉ. इन्दु

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